एक वेश्‍या जिसने कराया था विवेकानंद को संन्‍यासी होने का अहसास

Author   /  Reporter :     Team Hindustan

मात्र 39 वर्ष के जीवन काल में देश के युवाओं तथा जन मानस में सनातन धर्म के प्रति अलख जगाने वाले स्‍वामी विवेकानंद के जीवन में ढेरों उतार-चढ़ाव आए। शुरुआत में अंग्रेजी ख्‍यालातों में जीने वाले स्‍वामी जी ने अपने गुणों के बल पर ही खुद को दिव्‍यात्‍मा की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। स्वामी विवेकानंद एक ऐसे संन्यासी का नाम है जिनके अनुयायी देश ही नहीं, बल्कि दुनिया के हर कोने में नजर आते हैं और एक ऐसा संन्यासी जिनका एक वक्तव्य पूरी दुनिया को अपना कायल बनाने के लिए काफी होता था। लेकिन क्या आप को पता है कि अपने ज्ञान के बल पर दुनिया का दिल जीतने वाले स्वामी विवेकानंद को एक बार एक वेश्या के आगे हार माननी पड़ी थी।

अपने संस्‍मरण में स्‍वामी जी ने इस विषय पर लिखा है। बात उस समय की है जब स्वामी विवेकानंद जयपुर के पास एक छोटी सी रियासत के मेहमान बने। कुछ दिन वहां रहने के बाद जब स्वामी जी के विदा लेने का समय आया तो रियासत के राजा ने उनके लिए एक स्वागत समारोह रखा। 

उस समारोह के लिए उसने बनारस से एक प्रसिद्ध वेश्या को बुलाया। जैसे ही स्वामी विवेकाकंद को इस बात की जानकारी मिली कि राजा ने स्वागत समारोह में एक वेश्या को बुलाया है तो वे संशय में पड़ गए। आखिर एक संन्यासी का वेश्या के समारोह में क्या काम, यह सोचकर उन्होंने समारोह में जाने से इनकार कर दिया और अपने कक्ष में ही बैठे रहे। 



जब यह खबर वेश्या तक पहुंची कि राजा ने जिस महान विभूति के स्वागत समारोह के लिए उसे बुलाया है, उसकी वजह से वह इस कार्यक्रम में भाग लेना ही नहीं चाहते तो वह काफी आहत हुई और उसने सूरदास का एक भजन, 'प्रभु जी मेरे अवगुण चित न धरो...' गाना शुरू किया।

वेश्या ने जो भजन गाया, उसके भाव थे कि एक पारस पत्थर तो लोहे के हर टुकड़े को अपने स्पर्श से सोना बनाता है फिर चाहे वह लोहे का टुकड़ा पूजा घर में रखा हो या फिर कसाई के दरवाजे पर पड़ा हो। और अगर वह पारस ऐसा नहीं करता अर्थात पूजा घर वाले लोहे के टुकड़े और कसाई के दरवाजे पर पड़े लोहे के टुकड़े में फर्क कर सिर्फ पूजा घर वाले लोहे के टुकड़े को छूकर सोना बना दे और कसाई के दरवाजे पर पड़े लोहे के टुकड़े को नहीं तो वह पारस पत्थर असली नहीं है।

स्वामी विवेकानंद ने वह भजन सुना और उस जगह पहुंच गए जहां वेश्या भजन गा रही थी। उन्होंने देखा कि वेश्या कि आंखों से झरझर आंसू बह रहे हैं। स्वामी विवेकाकंद ने अपने संस्मरण में इस बात का उल्लेख किया है कि उस दिन उन्होंने पहली बार एक वेश्या को देखा था, लेकिन उनके मन में उसके लिए न कोई आकर्षण था और न ही विकर्षण। वास्तव में उन्हें तब पहली बार यह अनुभव हुआ था कि वे पूर्ण रूप से संन्यासी बन चुके हैं।

अपने संस्मरण में उन्होंने यह भी लिखा है कि इसके पहले जब वे अपने घर से निकलते थे या कहीं से वापस अपने घर जाना होता था तो उन्हें दो मील का चक्कर लगाना पड़ता था, क्योंकि उनके घर के रास्ते में वेश्याओं का एक मोहल्ला पड़ता था और संन्यासी होने के कारण वहां से गुजरना वे अपने संन्यास धर्म के विरुद्ध समझते थे। लेकिन उस दिन राजा के स्वागत समारोह में उन्हें एहसास हुआ कि एक असली संन्यासी वही है जो वेश्याओं के मोहल्ले से भी गुजर जाए तो उसे कोई फर्क न पड़े।