फार्मेसी की शिक्षा का वास्तविक और कड़वा सच

Author   /  Reporter :     Team Hindustan

इंजीनियरिंग, मेडिकल, होमियोपैथी, नर्सिंग आदि की तरह फार्मेसी भी स्वास्थ्य सम्बन्धी शिक्षा की एक बहुत बड़ी शाखा है। विदेशों में फार्मेसी शाखा का अपना एक अलग ही रुतबा और सम्मान है तथा जनमानस में इसकी काफी गहरी पहुँच है। विदेशों में फार्मासिस्ट को दवा विशेषज्ञ के रूप में बहुत नाम और इज्जत मिलती है।

 

भारत में फार्मेसी की पढ़ाई को वह सम्मान प्राप्त नहीं है जो कि विदेशों में है। भारत में इस पढ़ाई को वही चुनता है जिसको उसकी मनपसंद शाखा में प्रवेश नहीं मिल पाता है। कहने का मतलब यह है कि यह विद्यार्थियों की पहली पसंद नहीं है। विद्यार्थी अपना एक साल बचाने के लिए इसमें प्रवेश ले लेते हैं। बहुत से विद्यार्थी तो इसमें प्रवेश लेने के पश्चात भी अपनी मनपसंद शाखा में प्रवेश के लिए तैयारी करते रहते हैं।

आखिर क्या कारण है कि फार्मेसी की पढ़ाई विद्यार्थियों की पहली पसंद नहीं बन पा रही है? क्या कारण है कि विद्यार्थी घर बैठे-बैठे या फिर कहीं दूसरी जगह काम करते हुए भी फार्मेसी की पढ़ाई सफलतापूर्वक कर लेते हैं? क्या इस पढ़ाई में कुछ कमी है या फिर इस पढाई को नियंत्रित करने वाले सिस्टम में ही कुछ गड़बड़ी है? अगर इस पढाई का स्तर सुधारकर ऊँचा उठाना हैं तो हमें इन प्रश्नों पर ध्यान देना ही होगा।
 
दरअसल जब से फार्मेसी की शिक्षा का चलन शुरू हुआ है तब से इसके साथ सौतेला व्यवहार होता आ रहा है। दूसरी स्वास्थ्य सम्बन्धी शाखाओं के लोग फार्मासिस्ट की स्वीकार्यता बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि अब तक फार्मासिस्ट का कार्य बिना फार्मासिस्ट के सफलतापूर्वक चल रहा था। किसी को भी फार्मासिस्ट की आवश्यकता ही महसूस नहीं हो रही थी चाहे वह सरकार हो, चाहे स्वास्थ्य सम्बन्धी सरकारी सिस्टम हो या फिर आम जनता में शामिल मरीज हो।
 
जब जिस चीज की आवश्यकता नहीं होती है तब उस चीज की कोई पहचान भी नहीं होती है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि फार्मासिस्टों में से अधिकतर सिवाय दवा वितरित करने के और ज्यादा कुछ भी नहीं जानते हैं। जब हम पूरी तरह से विशेषज्ञ ही नहीं है तो फिर हम कैसे अपनी जरूरत बनायेंगे? दवा वितरण का कार्य तो एक आठवीं पास आदमी और कोई भी नर्सिंग कर्मी बड़ी कुशलतापूर्वक कर लेता है तो हम कैसे कह सकते हैं कि दवा वितरण का कार्य करने के लिए सिर्फ हम ही योग्य है?
 
शायद ही कोई दूसरा ऐसा पेशा होगा जिसमे लोग अपनी डिग्री और डिप्लोमा की पढाई को किराये पर चलाते हों लेकिन फार्मेसी में यह बात सामान्य है। अधिकतर दवा की दुकानें बिना फार्मासिस्ट के चलती रहती है क्योंकि इनका फार्मासिस्ट अपनी पढ़ाई को किराये पर लगाकर या तो कोई दूसरी नौकरी ढूँढ रहा होता है या फिर कहीं कोई छोटी-मोटी नौकरी कर रहा होता है। दुर्भाग्य की बात है कि विभिन्न केमिस्ट एसोसिएशन्स में वास्तविक फार्मासिस्ट ही नदारद है या फिर अल्पसंख्यक है तथा इनपर दवा दुकानदारों का कब्जा है जिनका फार्मेसी की पढ़ाई से कभी कोई नाता नहीं रहा है। इनके कर्ता धर्ता दवा दूकानदार ही बने हुए है। केमिस्ट एसोसिएशनों में केवल और केवल फार्मासिस्ट ही होने चाहियें तथा दवा व्यापारियों के लिए दवा व्यापर संघ हो सकते हैं।
 
 
फार्मेसी शिक्षा के मंदिरों यानि कॉलेजों की भी हालत बहुत बुरी है। फार्मेसी कॉलेजों की स्थापना सिर्फ और सिर्फ धनार्जन के लिए हो रही है तथा शिक्षा एक व्यापार का रूप ले चुकी है। अधिकतर कॉलेजों की बैलेंस शीट घाटे की होती है परन्तु इनके मालिकों के पास बहुत सी महँगी गाड़ियाँ होती है और उनकी जीवनचर्या भी काफी खर्चीली होती है।
 
शिक्षकों की हालत काफी खराब होती है तथा इन्हें वेतन काफी कम मिलता है। शिक्षक कॉलेज बदलनें की कम ही सोच पाते हैं क्योंकि दूसरे किसी कॉलेज में जगह नहीं होती है। हालत यहाँ तक है कि अगर किसी की नौकरी छूट गई तो उसे दूसरी नौकरी मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। सोलह साल के अनुभव वाले शिक्षक को बीस हजार की नौकरी मिलना भी बहुत कठिन हो रहा है और उसके लिए भी इधर-उधर से सिफारिश करनी पड़ती है।
 
फार्मेसी कॉलेजों में तय मानकों के अनुसार जितने शिक्षक चाहिए होते हैं हकीकत में उनके पचास प्रतिशत भी नियुक्त नहीं किये जाते हैं। कागजों में इन्हें दिखाने के लिए दवा की दुकानों की तरह अब किराये पर शिक्षक भी मिलने लग गए हैं। ये शिक्षक निरीक्षण वाले दिन पूरी निष्ठा के साथ उपस्थित रहते हैं। शिक्षक या तो कुछ दिन के लिए या फिर पूरे साल के लिए भाड़े पर लाये जाते हैं। इस प्रक्रिया को वैधानिक बनाने के लिए शिक्षकों का पूरे साल नाम चलाया जाता है, उपस्थिति दर्शायीं जाती है, तनख्वाह बैंक खातों में डाली जाती है तथा कुछ हिस्सा छोड़कर नकद में वापस ले भी ली जाती है।
 
निरीक्षण सम्बन्धी खानापूर्ति हो जाने के कारण शिक्षकों की जरुरत नहीं रह पाती है। निरीक्षण के वक्त पढ़ाई में जरूरी साधनों का एक कॉलेज से दूसरे कॉलेज में स्थानांतरण होता है तथा जिन कॉलेजों के पास सुविधाएँ नहीं होती है उनको भी बड़ी आसानी से मान्यता मिल जाती है। निरीक्षण में सहायता के लिए बहुत से दलाल भी सक्रीय है जो अपने मेल मिलाप वाले कौशल से असंभव को संभव बना देते हैं।
 
विद्यार्थी घर बैठे-बैठे ही अपनी पढाई कर लेना चाहता है तथा यह कार्य करके वह कॉलेज की मुराद पूरी कर देता है। विद्यार्थी साल में कुछ दिन ही कॉलेजों में दिखते हैं परन्तु उनकी उपस्थिति हमेशा परीक्षा में बैठने लायक बना दी जाती है। जब विद्यार्थी पढ़ने के लिए कॉलेज ही नहीं आना चाहेगा तो फिर कॉलेज भी पढ़ाने के लिए शिक्षक क्यों रखेगा? विद्यार्थियों के दर्शन सिर्फ प्रायोगिक परीक्षाओं में ही होते हैं तथा ये उनमे बड़ी आसानी के साथ उत्तीर्ण भी हो जाते हैं भले ही उन्हें कुछ भी नहीं आता हो। कई बार तो यहाँ तक कहा जाता है कि किसी ओर की जगह कोई ओर प्रायोगिक परीक्षा में बिठा दिया जाता है, परीक्षक कॉलेज में न आकर जहाँ वह ठहरा हुआ होता है वहीँ से ही आभाषी प्रायोगिक परीक्षा ले लेता है।
 
शिक्षकों का प्रमुख कार्य किसी भी तरह से विद्यार्थियों का अपने कॉलेज में प्रवेश करवाना हो गया है जिसके लिए इन्हें बाकायदा टारगेट्स भी दिए जाते हैं। शिक्षक अब मार्केटिंग करने के साथ-साथ टेली कॉलर की भूमिका भी निभाता है। कई कॉलेजों में दूसरे राज्यों के विद्यार्थियों को जत्थों के रूप में प्रवेश दिया जाता है तथा ये जत्थे सिर्फ दर्शन को आते हैं नियमित पढ़ने के लिए नहीं। जो शिक्षक जितने ज्यादा विद्यार्थियों का प्रवेश करवानें में सफल हो जाता है उसकी नौकरी अगले सत्र के लिए पक्की हो जाती है। जब से प्राइवेट यूनिवर्सिटीयोँ का चलन शुरू हुआ है तब से परिस्थितियाँ और खराब हुई है। ये प्राइवेट यूनिवर्सिटीयाँ कॉलेजों से ज्यादा स्वतंत्र है जिसकी वजह से अधिक मनमानी की गुंजाईश बढ़ गई है।
 
 
शिक्षकों का प्रमुख ध्येय प्रायोगिक परीक्षाओं में परीक्षक बनना, परीक्षा की कॉपियाँ जाँचना तथा आब्जर्वर और इंस्पेक्टर ही हो गया है। इन सब कार्यों के लिए हर प्रकार की चाणक्य नीति अपनाई जाती है तथा प्रभावशाली लोगों के चरण स्पर्श तक किये जाते है। वैसे भी चरण स्पर्श करना आज कल सम्मान प्रकट करने का सूचक कम और फैशन ज्यादा हो गया है। सामने चरण स्पर्श और पीछे से भला बुरा कहा जाता है।
 
फार्मेसी शिक्षा और शिक्षकों के ऐसे हालत क्यों है? क्या फार्मेसी कौंसिल ऑफ इंडिया (पी.सी.आई.) को इन हालातों के बारे में पता नहीं है और वह अनभिज्ञ है? क्या विभिन्न टीचर्स एसोसिएशनों को पता नहीं है? दरअसल सबको पता है परन्तु सभी चुप है। फार्मेसी कॉलेजों की वस्तुस्थिति की पी.सी.आई. को पूरी तरह से खबर है परन्तु इसके ढुलमुल रवैये के कारण इन स्थितियों को बढ़ावा मिलता आ रहा है। पी.सी.आई. के आला अधिकारी ऑफ द रिकॉर्ड इस बात को बड़े गर्व से कहते हैं कि हमने आज तक किसी भी कॉलेज को बंद नहीं किया है। इनका यह गर्व इस पेशे को गर्त में धकेल रहा है क्योंकि जब तक सख्ती नहीं होगी ये परिस्थितियाँ ठीक नहीं होगी।
 
फार्मेसी का डिप्लोमा कोर्स भारत का शायद एकमात्र ऐसा कोर्स होगा जिसके सिलेबस में 1991 (ई.आर. नाइंटी वन) के पश्चात कोई बदलाव नहीं किया गया है। विद्यार्थी अभी तक उन्ही चीजों को पढ़ रहे हैं जो अब चलन में भी नहीं है। पच्चीस साल पुराना सिलेबस पढ़ा कर हम विद्यार्थियों को क्या सिखा रहे हैं? क्या पी.सी.आई. के पास इतना भी वक्त नहीं है कि वह पच्चीस वर्ष पुराने सिलेबस को बदल दे? आखिर पी.सी.आई. का कार्य क्या है?
 
 
ऐसा नहीं है कि सभी कॉलेजों की हालत ऐसी ही है और ये अव्यवस्थाएँ सभी कॉलेजों में है। बहुत से कॉलेज और यूनिवर्सिटी निर्धारित मानकों का पालन करके भी शिक्षा का प्रकाश फैला रही हैं परन्तु इनकी साख भी दूसरे कॉलेजों के कारण खराब हो रही है। समाज में यह सन्देश जाता है कि अगर पैसा खर्च करो तो फार्मेसी की पढ़ाई तो घर बैठे-बैठे ही हो जाती है।
 
जब तक विद्या के मंदिरों में यह गन्दगी रहेगी तब तक यह पेशा सम्माननीय नहीं बन सकता है क्योंकि विद्यार्थियों के भविष्य की नींव यहीं पर ही तैयार होती है। हमें इस नींव को मजबूत बनाना होगा तथा इसके लिए हम सभी को चाहिए कि हम फार्मेसी प्रोफेशन से इस तरह की गन्दगी को दूर करें। हम इसे इस प्रकार का बना दें कि यह विद्यार्थियों की पहली पसंद बन सके। यह कार्य कठिन जरूर है परन्तु असंभव नहीं है।साभार-ज्वारभाटा.कॉम