मुहाजिर हैं मगर एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं
कहानी का ये हिस्सा आजतक सब सेछुपाया है
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहतमें
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमेंसलीक़े से
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़आए हैं
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहानजाती है
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आएहैं
यक़ीं आता नहीं लगता है कच्ची नींद मेंशायद
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़आए हैं
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता हैहम अपनी छत पे
जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में यादआता है
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थेवहाँ जब थे
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़देती हैं
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुएमज़हब
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं
ख़याल आता है अक्सर धूप में बाहर निकलतेही
हम अपने गाँव में पीपल का साया छोड़ आएहैं
दुआ के फूल पंडित जी जहां तकसीम करते थे
गली के मोड़ पे हम वो शिवाला छोड़ आए हैं
अब अपनी जल्दबाजी पर बोहत अफ़सोसहोता है
कि एक खोली की खातिर राजवाड़ा छोड़आए हैं
ये दो कमरों का घर और येसुलगती जिंदगी अपनी,
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आएहैं
कल एक अमरुद वाले से ये कहना गया हमको,
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आए हैं
वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिरबोला,
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आएहैं।
हमे मरने से पहले सबको ये ताकीदकरना है ,
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं ।
लेखक-मुनव्वर राना