पहाड़ों की कहानी कुछ इस तरह बयाँ हुई,
कहीं कहीं आज भी घर में रोशनी ना हुई,
उबड़ खाबड़ रस्ते, टेढ़ी मेढ़ी नदियाँ बहती है
राह में चलने वालों को कठिनाइया घेर लेती है,
जूझते हुए हर परिस्थिति से, घर की औरत जंगल जाती है
बिना जान की परवाह किये घर का चूल्हा जलती है
छोटी छोटी बिमारियों न वो घबराती है
गर्भधारण करते हुए भी सर पर बोझ उठाती है
जान की परवाह नहीं है उसे, ना वो आराम चाहती है,
बहुत कुछ नहीं मांगती वो, बस थोडा सहूलियत चाहती है
हो जाये सड़क मुकम्मल, ना रहे घर अँधेरे में,
पहाड़ों पे अब कुछ लघु उद्योग चाहती है
ये सच है की आज पहाड़ों की नारी कुछ परिवर्तन चाहती है
मौलिक लेखिका- दशमेश कौर (माही), जो खुद भी पहाड़ों की रहने वाली है