यूँ तो उत्तराखंड की भूमि बहुत ही पवन मानी जाती है क्यों की यहाँ केदारनाथ, गंगोत्री और हेमकुंड साहेब जैसे पावन स्थल है, परन्तु एक भूमि का एक और सच है जो खून मांगती है एक अंधविश्वास से भरा हुआ सच, यहाँ सरकुंडा, चन्द्रबदिनी और कुंजापुरी मंदिर जहाँ सती का सिर, बदन और पैर गिरा था जैसे स्थलों में तो बलि प्रथा ख़त्म कर दी गई मगर अभी भी कुछ ऐसे पूज्यनीय स्थल आज के २१वीं सदी में भी है जहाँ पशु बलि की प्रथा है, बलि मासूम और बेगुनाह जानवरों की, पहाड़ों में कहा जाता है की अगर बलि न दी जाये तो देवता नाराज़ हो जायेगे, देवी का प्रकोप बरसेगा जिससे कोई नहीं बच पायेगा, उत्तराखंड में कई ऐसे स्थान है जैसे उत्तरकाशी, अल्मोड़ा, चम्पावत, टिहिरी में ऐसे कुटुंब है जिनके व्यतिगत देवी देवता है जिनकी अराधना में बलि देना जरुरी है, ये उनका विश्वास है की हमारे देश देवी देवता खुश रहेगे और मनोकामना पूरी करेगे यदि हम जानवरों की बलि देते है,
ये कैसा अंधविश्वास है जो किसी बेजुबान और बेगुनाह् की जान लेने तक से नहीं कतराता मात्र अपने निजी स्वार्थ के लिए, कई बार तो जानवरों को ऐसे स्थान पे छोड़ दिया जाता है जहाँ वो भूख से तड़प तड़प के उनकी जान चली जाती है जो की एक तरह की बलि मानते है, बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती, यहाँ गाय, भैसों को अपने जीवन के निर्वाह के लिए पला जाता है और अगर गाय भैस किसी बछडे को जन्म देदे तो उस बछडे को जंगल ले जाकर एक पेड़ से बाँध दिया जाता है और वो भूखा प्यासा कई दिनों तक यूँ ही बधा रहता है जो की अंत में मर जाता है या तो कोई जंगली जानवर उसका शिकार कर लेता है, ये देवभूमि का कड़वा सच है जिसका कोई जवाब नहीं, क्या इस यतरह की बलि देने से देवता खुश होते होंगे ? किस तरह की इंसानियत है की एक बेजुबान छोटे बछडे को जंगल में बाँध दिया जाता है उसे मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, ये तो देवों की देव भूमि है इस तरह न जाने देश में कितनी और देव भूमि होगी और न जाने कितनी बलि प्रथा.....